विशेष आलेख:- बाढ़ कटाव , बचाव और हमारी भूमिका
: बाढ़ कटाव, बचाव और हमारी भूमिका
हैदराबाद की बाढ़ व तबाही का दृष्य आजकल समाचारों में छाया हुआ है। लगभग सवा सौ साल का रिकार्ड टूटा। वर्कशॉप, घरों, शोरूम में खड़े वाहन बह गये। घरों की पहली मंजिल डूब गयी, तो गरीब का तो सभी कुछ बह गया, क्योंकि उसका तो सब कुछ जमीन पर ही है। मंजिल तो उसके पास होती नहीं। लेकिन दूसरा समाचार इससे भी भयावह आश्चर्य चकित करने वाला है। जनप्रतिनिधि, शासन व स्थानीय अधिकारी सामाजिक कार्यकर्ताओं पर प्रश्न चिह्न ही नही है बड़ा तमाचा भी है कि वहाँ कि जल संग्रह कर वर्षा के पानी को झेलने वाली आधी से अधिक झीलें गायब है।
अर्थात पाट दी गयी है। नाले तक पाट दिये गये है। कुछ वर्ष पहले श्रीनगर में बाढ़ आयी थी। डल झील और
लगभग उसी जैसी छोटी बड़ी कई झीलें पाट दी गयी थी। हमारे यहाँ इस दौरान रकसिया नाला खतरे व चर्चा का विषय रहा है, लेकिन यह स्थिति आज से 40 साल पहले नहीं थी। तब नाले का अपना स्वरूप 40-50 फीट था,तथा वर्षा में पूरे सीजन में 8-10 बार यह बाढ़ के पानी के साथ खेतों में 100-150 मी० तक बहता था। बाढ़ आकर 2-3 घंटे में उतर जाती थी। सामान्यतः धान व मक्के की फसल को ज्यादा नुकसान नही नहीं होता था। वर्षा के बाद उपजाऊ मिट्टी खेतों में रहती थी। बमौरी, छडायल सुयाल, प्रेमपुर लोशयानि में कमोवेश यही स्थिति रहती थी।
लेकिन आज रकसिया नाला है कहाँ? उसका पुराना स्वरूप कहाँ गया ? दिन प्रतिदिन उसकी साइड दीवार ऊँची की जा रही है। फलस्वरूप वह तेजधार वाली नहर में बदल गया है, जो कभी भी,कहीं भी बढ़ा कटाव कर सकती है। हर इलाके कस्बे, शहर में यही स्थिति है।
झज्जे व नाले ही क्यों ? भावर क्षेत्र, 150-200 साल साल से बसा हुआ है। पूर्व में प्रत्येक गाँव या 3-4 गाँव के मध्य एक पोखरा हुआ करता था, जानवरों के पानी पीने के लिये। उस समय पेयजल व सिंचाई के लिए गौला नदी के पानी के अलावा अन्य स्रौत नही थे। पेयजल के लिये गर्मी में भीमताल का पानी गौला नदी में खोलने की व्यवस्था थी, जो कागज में आज भी है। नैनीताल जिले का पहला सिंचाई नलकूप 1959 में बमेटा बंगर केशव गुरूफार्म में लगा। प्रत्येक गाँव में 2-3 गूले मुख्य केनाल से गाँव के आखिरी छोर तक होती थी,जो आखिरी घर को भी चाहे वह लामाचौड़ का हो या गौलापार का दानीबंगर या बरेली रोड का देवरामपुर या कृष्णानवाड का गौला नदी से काठगोदाम नहर का पानी पीने के लिए पहुचाया करती थी। ये सारी गूले उत्तर से दक्षिण की ओर प्राकृतिक बहाब के अनुरूप थी, तथा इन गूलों, पोखरो की लगान किसान को नही पड़ती थी। अपने खेत के मध्य होने के बावजूद वह इनका मालिक नहीं था।
आज ये गूलें , पोखरे कहाँ है ? किसने बेच दिये ? इनका दाखिल खारिज कैसे हो गया ? यह विड़बना ही है कि पूरे भाबर का तेज बहाव उत्तर से दक्षिण को है। लेकिन कमोवेश सभी कॉलोनियों में जलभराव की समस्या है कियूंकि कालोनियां पूरब पच्छिम में बसी है और उत्तर दिशा में बनी नक़्शे की गूलों को पाट दी गया है जो जल भराव को रोक सकती है।
एक कष्टपूर्ण पहलू यह भी है कि आमतौर पर प्लाट खरीद कर मकान बनाने वालों को भूमि के वर्ग, नक़्शे, खाता नंबर की कोई जानकारी नहीं होती।अधिकांश लोग तो जीवन में पहली बार भूस्वामी बन रहे होते हैं। जमीन किसी रिश्तेदार या इस कार्य में लगे व्यवसायियों की मध्यस्थता से लेते हैं। कभी- कभी तो दूसरी पीढ़ी को पता चल पाता है कि उसका मकान तो गूल की जमीन के ऊपर या वर्ग 3, वर्ग 4 की जमीन पर है। सख़्त, स्पष्ट कानून बनाकर इसको रोका जा सकता है। यद्यपि अब तो रजिस्ट्री भी जी०पी०एस०मार्क के बाद हो रहीं है। लेकिन बिल्कुल सही जगह ही हो रही हैं कह पाना मुश्किल है! इसमें सबसे अधिक जिम्मेदारी स्थानीय जनप्रतिनिधियों की हो सकती है, जिनको लैंडमार्क तथा भूमि व्यवस्था की कुछ जानकारी होती है कियोंकि भूमि के दाखिल खारिज के समय एक सम्मन स्थानीय जनप्रतिनिधि, प्रधान को सूचना के लिए अवश्य प्राप्त होता है।
भूमि के जिन प्राकृतिक निकासों, कलमठ, नालों या जल संग्रहण क्षेत्रों को पाट दिया गया है वे वापस पुरानी स्थिति में नहीं आ सकते। लेकिन आगे से जो भवन निर्माण हेतु प्लॉटों की खरीद फ़रोख्त होगी उसमें यह ध्यान देना होगा कि जी०पी०एस० जैसी आधुनिक तकनीक के प्रयोग के साथ उपरोक्त प्रकार जमीन की खरीद फरोख्त तो नहीं हो रही है। मकान बनाने या भूमि खरीदने का अवसर आम आदमी को मुश्किल से एक पीढ़ी में एक बार ही मिल पाता है यह भी गलत जगह हो गया तो आने वाली पीढ़ियों कोसेंगी जैसा एन०एच- 87 या अन्य जगह ही रहा है।
( यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं)
नवीन दुम्का
विधायक, लालकुआ
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